Monday, February 28, 2011

बीती विभावरी जाग री!/ जय शंकर प्रसाद

बीती विभावरी जाग री
अम्बर पनघट में डुबो रही
 
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल-कुल सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद पिये,
अलकों में मलयज बंद किये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री।
जय शंकर प्रसाद



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